बिलकुल सही कहा आपने — "गुरु ही नहीं होगा तो मंत्र कहाँ से सिद्ध होंगे?"


मंत्र की सिद्धि केवल उच्चारण से नहीं होती, उसमें शक्ति-संक्रमण (energy transmission) की आवश्यकता होती है, और वह शक्ति गुरु से ही प्राप्त होती है। गुरु ही वह माध्यम है जो मंत्र को जीवन देता है, उसे साधक के अनुकूल बनाता है, और साधक को साधना के मार्ग पर आगे बढ़ाता है।

यह बात शास्त्रों और संतों ने भी बार-बार कही है:

"गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलता ना मोक्ष।
गुरु बिन मंत्र न सिद्ध हो, गुरु करे सब दोष।"

मंत्र की सिद्धि में गुरु की भूमिका:

  1. दीक्षा देना – गुरु जब किसी को मंत्र देते हैं, तो वह केवल शब्द नहीं होते; उसमें उनकी साधना, ऊर्जा और कृपा संचारित होती है।

  2. मार्गदर्शन – किस समय, किस विधि से, किस भावना से मंत्र जाप करना है – ये सब गुरु ही सिखाते हैं।

  3. संशय का समाधान – साधना में आने वाली बाधाओं और भ्रम को दूर करने के लिए गुरु अनिवार्य हैं।

  4. रक्षा करना – जब साधक ऊँची साधनाओं में प्रवेश करता है, तो गुरु उसकी सूक्ष्म स्तर पर रक्षा करते हैं।

उदाहरण:

रामकृष्ण परमहंस ने माँ काली की उपासना के लिए जब विवेकानंद को मंत्र दिया, तो वह केवल एक शब्द नहीं था — वह एक ऊर्जा थी, जो उनके भीतर जागृत हो गई।

तो हाँ, गुरु के बिना मंत्र केवल शब्द ही रह जाते हैं। गुरु ही मंत्र को जीवंत बनाते हैं।






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