*श्री गुरुगीता**पार्ट 11* *महादेव जी द्वारा माता पार्वती को विभिन्न प्रकार के गुरु के बारे में ज्ञान देना*

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*श्री गुरुगीता*

*पार्ट 11*

*महादेव जी द्वारा माता पार्वती को विभिन्न प्रकार के गुरु के बारे में ज्ञान देना*

*महादेव जी कहते है–* 
शिष्य के धन को अपहरण करने वाले गुरु तो बहुत है लेकिन शिष्य के हृदय का संताप हरने वाले एक गुरु भी दुर्लभ है ऐसा मैं मानता हूं। जो चतुर हो, विवेकी हो ,अध्यात्म के ज्ञाता हो ,पवित्र हो तथा निर्मल मानस वाले हो उनमें गुरु तत्व शोभा पाता है। गुरु निर्मल, शांत, साधु स्वभाव के, मितभाषी, काम– क्रोध से अत्यंत रहित , सदाचारी और जितेंद्रिय होते हैं ।सूचक आदि भेद से अनेक गुरु कहे गए हैं। बुद्धिमान मनुष्य को स्वयं योग विचार करके तत्वनिष्ट सद्गुरु की शरण लेनी चाहिए ।

हे देवी ! वर्ण और अक्षरों से सिद्ध करने वाले ब्रह्म लौकिक शास्त्रों का जिसने अभ्यास है वह *‘सूचक गुरु’* कहलाता है ।हे पार्वती! धर्माधर्म का विधान करनेवाली, वर्ण और आश्रम के अनुरूप विद्या का प्रवचन करने वाले गुरु को तुम *‘वाचक गुरु ’* जानो। पंचाक्षरी आदि मंत्रों का उपदेश देने वाले गुरु *‘बोधक गुरु’* कहलाते हैं । हे पार्वती ! प्रथम दो प्रकार के गुरुओं से यह गुरु उत्तम है ।मोहन, मारण, वशीकरण आदि तुच्छ मंत्रो को बताने वाले गुरु को तत्वदर्शी पंडित *‘निषिद्ध गुरु’* कहते हैं। हे प्रिय ! संसार अनित्य और दुखों का घर है ऐसा समझाकर जो गुरु वैराग्य का मार्ग बताते हैं वह गुरु *‘विहित गुरु’* कहलाते हैं । हे पार्वती ! तत्वमसि आदि महावाक्यों का उपदेश देने वाले तथा संसार रूपी रोगों का निवारण करने वाले गुरु *‘करणाख्ये गुरु’* कहलाते हैं।सर्व प्रकार के संदेहों का जड़ से नाश करने में जो चतुर है ,जन्म ,मृत्यु तथा भय का जो विनाश करते हैं वह *‘परम गुरु’* कहलाते हैं *‘सद्गुरु’* कहलाते हैं।

अनेक जन्मों के किये हुए पुण्य से ऐसे महागुरु प्राप्त होते हैं। उनको प्राप्त करके शिष्य पुन: संसार बंधन में नहीं बंधता अर्थात मुक्त हो जाता है ।
हे पार्वती ! इस प्रकार संसार में अनेक प्रकार के गुरु होते हैं इन सब में से एक *‘परम गुरु’* का ही सेवन सर्व प्रयत्नों से करना चाहिए।

 *पार्वती माता ने कहा –*
प्रकृति से ही मूढ़,मृत्यु से भयभीत,सत्कर्म से विमुख लोग देवयोग से *‘निषिद्ध गुरु’* का सेवन करें तो उनकी क्या गति होती है?

 *महादेव जी कहते हैं–*
 *निषिद्ध गुरु* का शिष्य दुष्ट संकल्पों से दूषित होने के कारण ब्रह्मप्रलय तक मनुष्य नहीं होता पशु योनि में ही रहता है। हे देवी ! इस तत्व को सुनो मनुष्य जब भी विरक्त होता है तभी वह अधिकारी कहलाता है ऐसा उपनिषद कहते हैं। अर्थात देव योग से गुरु प्राप्त होने की बात अलग है और विचार से गुरु चुनने की बात अलग है ।अखंड ,एक रस ,नित्यमुक्त और निरामय ब्रह्मा को अपने अंदर ही जो दिखलाते है वही गुरु होने चाहिए। हे पार्वती ! जिस प्रकार सब जलाशयों में सागर राजा है उसी प्रकार सब गुरु में यह *‘परम गुरु’* राजा है ।

मोहादी दोषों से रहित ,शांत नित्य तृप्त, किसी के आश्रय रहित अर्थात स्वाश्रयी, ब्रह्मा और विष्णु के वैभव को भी तर्णवत समझने वाले गुरु ही *‘परम गुरु’* है। सर्व काल और सर्व देश में स्वतंत्र, निश्चल,, सुखी, अखंड एक रस के आनंद से तृप्त ही सचमुच *‘परम गुरु’* है । द्वैत और अद्वैत से मुक्त,अपने अनुभव रूप प्रकाश वाले, अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने वाले और सर्वज्ञ ही *‘परम गुरु’* है। जिनके दर्शन मात्र से मन अपने आप प्रसन्न हो जाता है अपने आप धैर्य और शांति आ जाती है वह *‘परम गुरु’* है। जो अपने शरीर को शव समान समझते हैं ,अपनी आत्मा को अमर जानते है,जो काम और कंचन के मोह का नाश कर्ता है वह *‘परम गुरु’* है।

हे पार्वती! सुनो । तत्वज्ञ दो प्रकार के होते हैं : मौनी और वक्ता । हे प्रिय ! इन दोनों में से मौनी गुरु द्वारा लोगों को कोई लाभ नहीं होता परंतु वक्ता गुरु भयंकर संसार सागर को पार कराने में समर्थ होते हैं क्योंकि शास्त्र युक्ति (तर्क) और अनुभूति से वह सर्व संशयों का छेदन करते हैं।

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