*श्री गुरुगीता**पार्ट 10* MAHADEV NE DIYE MATA PARTWARI KO MANTRA JAAP

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*श्री गुरुगीता*

*पार्ट 10*

*महादेव जी माता पार्वती को जप करने के विभिन्न विभिन्न स्थानों का वर्णन करते है*

महादेव जी कहते हैं सकामीयों के लिए मैं जप करने का स्थानों का वर्णन करता हूं ।
सागर या नदी के तट पर, तीर्थ में, शिवालय में विष्णु जी या देवी जी के मंदिर में, गौशालाओं में, सभी शुभ देवालयों में, वटवृक्ष के या आंवले के वृक्ष के नीचे, मठ में तुलसीवन में, पवित्र निर्मल स्थान में, नित्यनुष्ठान के रूप में अनासक्त रहकर मौन पूर्वक इसके जाप का आरंभ करना चाहिए।

जप से जय प्राप्त होता है तथा जप की सिद्धि रूप फल मिलता है । जपनुष्ठान के काल में सब नीच कर्म और निन्दित स्थान का त्याग करना चाहिए ।श्मशान में ,बिल्व, वटवृक्ष या कनक वृक्ष के नीचे और आम वृक्ष के पास जप करने से सिद्धि जल्दी होती है।
 हे देवी ! कल्प प्रयत्न के करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोकत क्रियाएं ये सब गुरुदेव के संतोष मात्र से सफल हो जाते हैं ।भाग्यहीन, शक्तिहीन और गुरु सेवा से विमुख जो लोग इस उपदेश को नहीं मानते वह घोर नरक में जाकर पड़ते हैं ।जिसके ऊपर श्री गुरुदेव की कृपा नहीं है उसकी विद्या ,धन, बल और भाग्य निरर्थक है ।हे पार्वती! उसका अध: पतन होता है ।

जिसके अंदर गुरु भक्ति हो उसकी माता धन्य हैं, उसके पिता धन्य हैं, उसका वंश धन्य है ,उसके वंश में जन्म लेने वाले धन्य हैं, समर्ग धरती माता धन्य है। शरीर, इंद्रियां, प्राण, धन , सवजन, बंधु बांधव ,माता का कुल, पिता का कुल ,यह सब गुरुदेव ही है इसमें संशय नहीं है ।गुरु ही देव है ,गुरु ही धर्म है ,गुरु में निष्ठा ही परम तत्व है ।गुरु से अधिक और कुछ भी नहीं है यह मैं तीन बार दोहराता हूं। जिस प्रकार सागर में पानी , दूध में दूध , घी में घी अलग-अलग घटो में आकाश एक और अभिन्न है उसी प्रकार परमात्मा में जीवात्मा एक और अभिन्न है।

 इसी प्रकार ज्ञानी सदा परमात्मा के साथ अभिन्न होकर रात दिन आनंद विभोर होकर सर्वस्त्र विचारते हैं ।हे पार्वती !गुरुदेव को संतुष्ट करने से शिष्य मुक्त हो जाता है ।ज्ञानी दिन में या रात्रि में सदा सर्वदा समतत्व में रमण रहते हैं। इस प्रकार के महामौनी अर्थात ब्रह्मानिष्ठ महात्मा तीनो लोक में समान भाव से गति करते हैं। गुरु भक्ति ही सबसे श्रेष्ठ तीर्थ है, अन्य तीर्थ निरर्थक है। हे देवी! गुरुदेव के चरणकमल सर्वतीर्थमय है।

हे देवी ! हे प्रिय ! कन्या के भोग मे रत, सवस्त्री से विमुख( परस्त्रीगामी)ऐसे बुद्धि शून्य लोगों को मेरा यह आत्म प्रिय परम बोध मैंने नहीं कहा ।अभक्त, कपटी, धूर्त, पाखंडी, नास्तिक इत्यादि को यह गुरु गीता कहने का मन में सोचना तक नहीं।

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